स्वामी सहजानंद के अनुसार क्रांति का मतलब व्यवस्था में आमूल-चूल बुनियादी एकाएक परिवर्तन है, जिसमें शासक वर्ग बदल जाता है। एक राजसत्ता की कई सरकारें होती हैं। सिर्फ सरकार बदलने, शासक पार्टी बदलने, शासक व्यक्ति के बदलने को क्रांति नहीं कहते हैं। राज्यसत्ता किसी वर्ग की या वर्गों के संश्रय की होती है। अतः शासक वर्ग को बदले बिना, शासन की प्रणाली को बदले बिना, शासन के संविधान को नए वर्ग के अनुकूल बदले बिना क्रांति संभव नहीं है। स्वामी सहजानंद भारतीय क्रांति की अवधारणा के निर्देशक, सूत्रधार, पटकथा लेखक सिद्धांतकार, सूत्रकार, संघर्षकार थे। स्वामीजी के अनुसार यदि क्रांति संपन्न हुई होती तब इसके शिल्पी निश्चय ही सुभाषचंद्र बोस होते क्योंकि गांधी, नेहरू, पटेल के आर्टिकुलेशन का जबाव वही दे सकते थे। स्वामीजी मूलतः संन्यासी थे, चिंतक थे, भिडंत के महानायक थे मगर राजनीति के पैंतरों को समझने में उतना सिद्धहस्त नहीं थे। फिर भी स्वामीजी ने 14-15 जून 1947 को कांग्रेस महासमिति की बैठक में गांधी के बँटवारा प्रस्ताव का डटकर विरोध किया।
इस क्रांति को संपन्न करने के लिए स्वामीजी के पास मुकम्मल तथ्य और कार्यक्रम था।
लक्ष्य - वर्तमान साम्राज्यवादी, आवारा पूँजीवादी, सामंतवादी राज्य सत्ता को ध्वस्त कर किसान-मजूर राज्यसत्ता की स्थापना और शोषित-पीड़ित जनता की वर्ग हित की रक्षा करने वाली सरकारें कायम करना।
कार्यक्रम
इसके लिए किसान-मजदूर और टूटपूँजीय वर्गों का संयुक्त मोर्चा उनकी पार्टियों की जनसंगठन की एकता के जरिए तैयार करना। सामंत विरोधी संघर्ष के जरिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को अग्रगति दिया जाएगा।
सामंतवाद, साम्राज्यवाद, पूँजीवाद से एकमुश्त मुक्ति जरूरी है। आर्थिक आजादी के बगैर राजनीतिक आजादी व्यर्थ है। किस्त किस्त में आजादी सही नहीं है। डोमिनियन स्टेट्स के जरिए आजादी लेना पूर्ण आजादी की फाँसी होगी।
सूत्रीकरण
1. साम्राज्यवाद प्रधान अंतर्विरोध है।
2. सामंतवाद प्रधान अंतर्विरोध का प्रधान पहलू है।
3. किसान आसन्न क्रांति का प्रधान कल है।
4. सर्वहारा-किसान संश्रय क्रांति की धुरी है।
5. जनता का जनवाद क्रांति की प्रथम मंजिल है। दूसरी मंजिल कालांतर में समाजवाद है।
6. धर्म से नहीं, झगड़ा धर्म के ढकोसला से है। असली वेदांत मानस सेवा और दूसरों की भलाई है।
7. सबकी भलाई, सबका स्वराज्य किसान मजदूर के लिए यमराज है। अतः सर्वोदय के नाम पर जमींदार-मालदार बाबू वर्ग के राज्य की जगह बहुजन हिताय हेतु किसान-मजदूर राज्य देश के हित में है।
8. अंतरराष्ट्रीयता जरूरी है मगर राष्ट्रहित को बलि देकर नहीं। अतः आत्म निर्णय के नाम पर पाकिस्तान निर्माण में सहयोग करना आत्मघाती है।
9. संसदीय रास्ता तभी अपनाना है जब नेता परीक्षित और आजमाया हुआ हो। वह भी इस मतलब से कि एक ओर संसद का उपयोग भंडाफोड़ के लिए करें और दूसरी ओर जनता को बतलाएँ कि यह मार्ग जनहित के लिए अपर्याप्त और गौण महत्व का है। असली संघर्ष बाहरी है और बाहरी का मतलब वर्ग संघर्ष है।
10. यदि किसानों को बचाना है तो किसानों को किसान मजदूर राज्य सत्ता की स्थापना के लिए वर्ग चेतना जगाकर तैयार करना होगा और सत्ता बलपूर्वक छीननी होगी।
11. बलपूर्वक का अर्थ उग्र किसान मजदूर आंदोलन जो आर्थिक मांग से प्रारंभ कर राज्य विप्लव तक पहुँचे। इसके लिए लाल सेना नहीं, सिर्फ आत्म रक्षार्थ मिलिशिया आवश्यक है।
12. क्रांति का नेतृत्व सम्मिलित होगा।
स्वामी सहजानंद ने अपने लेखों, भाषणों, पुस्तकों द्वारा शोषण मूलक खेतिहर संस्कृति का सही-सही चित्रण किया और खेतिहर सामाजिक वर्गीकरण, सामाजिक बदलाव में किसानों का स्थान, सर्वहारा के साथी की पहचान का सही मूल्यांकन, विश्लेषण, चित्रण किया और कई मुद्दों पर परंपरावादी रूढ़िवादी वामपंथ और पलटबाज अवसरवादी वामपंथ से गहरी असहमति जताई। वे कृषि में तकनीकी प्रवेश के प्रति ज्यादा आग्रहशील थे। उन्होंने मार्क्स और वेदांत दोनों का पुनर्पाठ किया और मार्क्स को सहृदय तथा वेदांत को तर्कशील बुद्धिवादी बनाया और दोनों के बीच पुल बनाया। उन्होंने यूनियन के ट्रेडिज्म पर भी सवाल खड़े किए। उन्होंने वाम दलों के संयुक्त मोर्चा का नेता सुभाषचंद्र बोस को बनाया पर समाजवादी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पलटबाजी के कारण सुभाष की शिकस्त पूरे भारत में वामपंथ की शिकस्त हो गई और बाबू वर्ग गद्दीनसीन हो गया। स्वामीजी को इसका बहुत मलाल रहा। मृत्यु पूर्व उन्होंने 18 वामदलों का संयुक्त मोर्चा बनाया और एक दल संयुक्त समाजवादी दल बनाया जिसके वे 21 फरवरी 1950 को राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। इस दल में निम्न व्यक्ति शरीक हुए -
1. स्वामी सहजानंद सरस्वती
2. सोमनाथ लाहिड़ी (1948 पटना सम्मेलन में शरीक थे)
3. राजदेव सिंह (सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया)
4. यमुना कार्यी (बिहार प्रांतीय किसान सभा)
5. शीलचंद्र याजी (प्रधानमंत्री फॉरवर्ड ब्लाक)
6. ओंकारनाथ शास्त्री (प्रधानमंत्री रिवोल्यूशनरी वर्कर्स पार्टी)
7. रामचंद्र राय (वोल्शेविक पार्टी ऑफ इंडिया)
8. अजित राय (वोल्शेविक लेनिनिस्ट पार्टी आफ इंडिया)
9. सुधीर नाथ कुमारी (रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया)
10. सुशील भट्टाचार्य (रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी)
11. साधन गुप्ता (खान मजदूर संघ)
12. जीवन लाल चटर्जी (डेमोक्रेटिक मैन गार्ड)
13. पंकज कुमार दास (कम्युनिस्ट वर्कर्स लीग आफ इंडिया)
14. परमानंद प्रसाद (किसान सभा)
15. टी परमानंद (मजदूर सभा)
16. शिवनाथ घोष (सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर)
17. कम्युनिस्ट वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया
18. रामदुलारी सिन्हा (सुगर फेडरेशन)
स्वामीजी ने 1940 में ही सुभाषचंद्र बोस से मिलकर 19 मार्च 1940 रामगढ़ से अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया था, जिसमें संसदवादी नेताओं की विलंबित शिरकत 9 अगस्त 1982 मुंबई में हुई। यदि 1940 में जयप्रकाश, पीसी जोशी, नेहरू अंग्रेजों के विरुद्ध साथ दिए होते तो भारत उसी समय आजाद हो जाता। स्वामीजी दूर तक सोचते थे, अतः काल का अतिक्रमण कर सोच लेते थे। साम्राज्यवाद आज भी भारत पर हावी है, अतः स्वामीजी आज भी समकालीन हैं।
स्वामी सहजानंद सरस्वती का पृष्ठाधार और प्रार्दुभाव
1930 के आसपास किसान विस्फोट का भारतीय राजनीति में प्रादुर्भाव होता है। प्रादुर्भाव का पृष्ठाधार राजनीति की अन्य चालू धाराओं में आया ठहराव है। 1922 से गांधीजी के नेतृत्व में चल रहा संसदीय सत्याग्रह स्थगित कर दिया जाता है और चरखा जैसा सामाजिक काम रचनात्मकता के आधार पर हाथ में ले लिया जाता है। खिलाफत आंदोलन में धर्म के सवाल के प्रमुख स्थान ले लेने के कारण टर्की के खलीफा की गद्दी तो न बचाई जा सकी पर धार्मिक अंधविश्वास की राजनीतिक मान्यता ने तबलीग और शुद्धिकरण अभियान को जन्म दिया, जिसके परिणाम में केरल के मोपला दंगा, कानपुर, अहमदाबाद, पेशावर, कोहाट इत्यादि में दंगे फूट पड़े, जिसमें गणेशंकर विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानंद इत्यादि का बलिदान हुआ। 1930 में विश्व बाजार में मंदी छाई हुई थी। भारत के किसान भी सस्ती के कारण मालगुजारी चुकाने में असमर्थ थे। उनका आक्रोश उबाल पर था। जब, कांग्रेस ने राजनीतिक संघर्ष चौरी-चौरा के बाद स्थगित कर दिए तब कमाने वाली जनता मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश की अभिव्यक्ति का नया मार्ग तलाश करने लगी। सहजानंद को इतिहास ने अपने इसी मोड़ पर पैदा किया और उन पर यह कार्यभार डाला कि वे किसान हलचल को आंदोलन कर संगठित रूप प्रदान करें। स्वामी सहजानंद की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने अपने ऊपर इतिहास द्वारा डाली गई जवाबदेही को बखूबी पूरा किया। सहजानंद ने हलचल को उग्र आंदोलन और अंत में व्यापक जन उत्साह तक पहुँचाया पर उस समय के समाजवादी, मार्क्सवादी संसदीय नेताओं की पलटबाजी के कारण सहजानंद कमानेवाली जनता के हाथ राज्यसत्ता न दिलवा सके। 1939-40 में सुभाष की शिकस्त समूचे वामपंथ की भारत में शिकस्त बन गई और 15 अगस्त 1947 को डोमिनियन स्टेट्स पर संतोष करना पड़ा।
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद
भगत सिंह की गिरफ्तारी और चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला के बलिदान के बाद क्रांतिकारी राष्ट्रवाद में भी ठहराव आ गया। इस ठहराव ने किसान आंदोलन की धारा को जमीन तोड़कर प्रवाहित होने का मौका प्रदान किया।
स्वराज्य पार्टी
मोतीलाल नेहरू की स्वराज्य पार्टी, मालवीयजी की नेशनेलिस्ट पार्टी, लाजपत राय की इंडिपेंडेंट पार्टी भी जनता को साम्राज्यवाद से राहत नहीं दिला पाई। अब 1930 के दशक में साम्राज्यवाद का विरोध का प्रधान उपकरण एकमात्र किसान संघर्ष ही रह गया।
किसान मजदूर एकता
स्वामी सहजानंद ने किसान नेता रामवृक्ष बेनीपुरी, श्यामनंदन बाबा इत्यादि को बिहरा चीनी मील में मजदूर फ्रंट पर मजदूरों के सवाल पर उन्हें संगठित करने, संघर्ष पर उतारने में लगाया। उन्होंने दूसरी तरफ मजदूर नेता अनिल मिश्रा, इंदुलाल यागिक इत्यादि को बड़हिया और गुजरात में किसान आंदोलन के मोर्चे पर लगाया। इस तरह किसान मजदूरों को एकता एवं संश्रय का मार्ग दिखाकर भावी क्रांति का पथ प्रशस्त किया। स्वामी सहजानंद का वर्गमूल एवं वर्गहित दोनों गरीब किसान पृष्ठाधार था।
सांस्कृतिक नवजागरण
बिहार का सांस्कृतिक नवजागरण तभी परवान चढ़ा जब बिहार में किसान आंदोलन बलवती हुआ। रामधारी सिंह दिनकर, बेनीपुरी, राहुल, नागार्जुन, अज्ञेय, माचवे, रेणु, वियोगी, उग्र, रामनरेश त्रिपाठी, चंद्रदेव शर्मा, पद्म सिंह त्यागी इत्यादि उसी किसान आंदोलन की उपज हैं। रामवृक्ष बेनीपुरी किसान आंदोलन की पत्रिका योगी, लोकसंग्रह और जनता के संपादक थे। नागार्जुन ने 'बलचनमा' उपन्यास, रेणु ने 'मैला आँचल', दिनकर ने 'हुंकार' 'कुरुक्षेत्र' इत्यादि की रचना किसान संघर्ष को पृष्टाधार बनाकर किया है। एन.जी. रंगा आंध्र में, इंदुलाल यागिक गुजरात में, अज्ञेय मेरठ में, प्रभाकर माचवे बागपत में, मुल्कराज आनंद त्रिपुरी में किसान संघर्ष में स्वामीजी के साथ थे। अतः हिंदी क्षेत्र के नवजागरण में स्वामीजी का बड़ा हाथ था।
भारत छोड़ो आंदोलन
कहा जाता है कि भारत छोड़ो आंदोलन 9 अगस्त 1942 मुंबई से शुरू हुआ। विचारणीय बात यह है कि यदि यह सच है तब फिर सुभाष चंद्र बोस, स्वामी सहजानंद, इंदुलाल, नारीमन, शार्दुल विक्रम सिंह, शीलचंद्र याजी, त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती, योगेश चटर्जी, योगेंद्र शुक्ला, रामनंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, गुलाली सोनार, कपिलदेव राय, नन्हकू सिंह इत्यादि 1940 के प्रारंभ से ही जेल में क्यों बंद थे। यदि प्रकाशन विभाग केंद्र सरकार की पुस्तक स्वामी सहजानंद सरस्वती के दस्तावेजों को देखें तो भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत स्वामी सहजानंद और सुभाष के नेतृत्व में 10 मार्च 1940 रामगढ़ के समझौता विरोधी सम्मेलन से हुई। गांधीजी के ग्रुप की बिलंबित कागजी शिरकत 1942 में हुई। गांधीजी ने सिर्फ व्यक्तिगत सत्याग्रह करने को कहा था। 1942 को चलाने वाले सुभाष समर्थक सियाराम सिंह, नाना पाटिल, त्रिलोक नाथ चक्रवर्ती, केशव प्रसाद शर्मा, झारखंडे राय इत्यादि थे। यह विषय विस्तार और बहस की अपेक्षा रखता है।
संदर्भ
1. स्वामी सहजानंद सरस्वती रचनावली, संपा. राघव शरण शर्मा प्रकाशन संस्थान, दिल्ली।
2. स्वामी सहजानंद सरस्वती, राघवशरण शर्मा, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, दिल्ली।